गुरुवार, 30 जुलाई 2009

अगर ऐसा ही होना है तो हो चुका आम आदमी के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था का विकास

इस देश में हर कोई रोना रोता है बिगड़ी हुई स्वास्थ्य व्यवस्था का लेकिन इसका कोई स्थानीय समाधान ढूँढने के बजाय हमारे भाग्य विधाता विदेशों की ओर टकटकी लगाकर देखते रहते हैं. पहले दुर्भाग्य तो यह की इतना बड़ा बौधिक धन होने के बावजूद उसे अवसर नहीं मिलना . ओढी हुई नीतियां जो अंग्रेजों ने बनाई थी हमारे माडर्न अंग्रेज उसमे कोइसुधार या व्यवस्था नहीं कर पाए . हर नेता यही कहता है डॉक्टर गाँव नहीं जाना चाहते , प्रश्न यह है कि आपके पास कितने डॉक्टर हैं और इतने सालों में आपने कितने लोगों को यह ज्ञान पाने की सुविधा प्रदान की . ये खुद तो ५ साल में एक बार गाँव जाते हैं और सरकारी फरमान सुना देते हैं कि डॉक्टर को गाँव जाना चाहिए. सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि नेताजी बड़ी काम की बात कर रहे हैं लेकिन जिस गाँव में स्कूल भी नहीं है वहाँ जाकर डॉक्टर करेगा भी क्या ?
इस देश के लायक कोई सफल स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं बन पाने का कारण लोगों की अदूरदर्शिता ही कही जायेगी . इस देश को आवश्कता है मूलभूत डॉक्टर की नाकि उच्चतम शिक्षा की बाढ़ लगाने की . उच्च शिक्षा की भी जरूरत है लेकिन आज अडोस पड़ोस का मित्र पारिवारिक चिकत्सक गायब हो गया और उसकी जगह ले ली झोला छाप लोगों ने . पहले केवल पीएचडी और एलॉपथी चिकित्सक को ही डॉक्टर के नाम से जाना जाता था . आज तो बाढ़ सी आ गयी है ये जानना मुस्किल है कि अगला कौन सी पद्धति का चिकित्सक है या है भी नहीं ..
अपने पडोसी चीन और बंगला देश से भी आप सीख सकते थे जो कम खर्च में एक बुनियादी पद्धति का विकास करने में सफल हुए . लेकिन आपके चारो तरफ तो बड़ी बड़ी वैश्विक कंपनियां घूम रही थी .
आज अमेरिका जैसे देश को जो विश्व में आधुनिक चिकित्सा में सबसे आगे माना जाता है अपने पूरे सिस्टम को बदलने का प्रयास करना पड़ रहा है . विरोध वहां भी हो रहा है क्योंकि बड़ी बड़ी शक्तियां पीछे हैं. वहां सरकार अपने बजट का ३० प्रतिशत खर्च करने के बाद भी करोडो को स्वास्थ्य सुविधा नहीं दिला पा रही है ? यहाँ हम ३ प्रतिशत भी नहीं खर्च करके आसमान छू लेना चाहते हैं .
जिस तरह हम सारी नक़ल पश्चिम की कर रहे थे तो एक नक़ल और कर डाली पहले तो अपना बाजार उपभोक्ता वस्तुओं के लिए खोल दिया और साथ ही ले आये उपभोक्ता कानून . आप कह सकते हैं ये तो होना ही चाहिए . लेकिन इसका सबसे बुरा प्रभाव जो पश्चिम पहले से ही झेल रहा था अब ये गरीब देश झेल रहा है . इस कानून के भय से पहले तो चिकित्सक एक भयपूर्ण तनाव के माहोल में काम कर रहा है दुसरे सभी वस्तुएं महंगी और जनसाधारण की पहुँच से बाहर हो गयी हैं . आज किसी भी व्यक्ति की चकित्सा का ४० से ८० प्रतिशत खर्च दवाओं और अन्य सम्बंधित सामानों में होता है . जिनकी गुणवत्ता देखने का कोई अच्छा सिस्टम नहीं है , इसलिए धाद्ल्ले से नकली दवाओं और सामानों का बाजार गर्म है . MRP लगाकर लोगों को लूटने की खुली छूट कंपनियों को दे दी गयी है . कंपनियां भी आपसी प्रतिस्पर्धा में
डॉक्टरों को हर तरह से लुभा रही हैं .
कानून भी कभी मरहम लगा रहा है तो कभी चमड़ी नोच ले रहा है . सुप्रीम कोर्ट ने एक तरफ तो कई निर्णय दिए हैं जिनसे कि डॉक्टर अपना काम बिना किसी झूठे भय के दबाव में आकर कर सके, दूसरी ओर उसने एक सरकारी अस्पताल पर १ करोड़ रुपये का जुरमाना लगाया है एक ऑपरेशन के बाद हुए कॉम्प्लिकेशन के कारण . अगर किसीने कोई गलती जाबूझकर की है तो उसे उसकी सजा मिलनी चाहिए . प्रश्न केवल यह है इस देश और व्यस्था को देखते हुए इस सजा का कोई पैमाना तो होना चाहिए . किसीकी भी जान अमूल्य होती है उसका पैसे से मोल नहीं लगाया जा सकता लेकिन अगर इतने बड़ी सजा दी जाने लगी तो इस देश में स्वास्थ्य व्यवस्था का भगवन जाने क्या होगा.
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कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट के मामले में जहाँ एक नामी वकील का अपराध सिद्ध हो गया है कि उसने गवाह को झूठी गवाही देने के लिए प्रेरित किया (जिसमे अभुक्त ने कार चढा कर कई लोगों की जान ले ली ), सजा २००० रुपये जुरमाना और ४ महीने काम से बाहर ?

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