सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

क्या सरकार को नक्सलवादियों की ब्लैकमेलिंग का शिकार होना चाहिए

नृशंश मानवघाती नक्सलवादियों के एक नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी ने सरकार के सामने प्रस्ताव रखा है कि अगर सरकार अपना "ग्रीन हंट " अभियान रोकती है तो वो भी सुरक्षा दलों और सरकारी अधिकारियों पर हमला नहीं करेंगे .

जब अपनी जान पर आ पड़ी तो समझौता करने के लिए प्रयास ? अभी तक जो जाने इनने ली है उसकी सजा कौन भुगतेगा या इन्हे छोड़ दिया जाएगा ?

इस समाचार मे आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है , जिनकी भी ये हत्या करते रहे हैं .इस बात से यह स्पष्ट हो गया है कि इनका कोई जनाधार नहीं है . जनाधार पर आधारित किसी  आंदोलन को दुनिया की कोई भी सरकार नहीं दबा सकती है  चाहे कितना भी धन बल लगा ले .इनकी असली नजर उस अपर वन एवं खनिज सम्पदा पर थी जो प्रभावित क्षेत्रों मे विद्यमान है . इसका काफी दोहन भी ये प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कर चुके हैं , आदिवसियों और वनांचल के ठेकेदारों से वसूली करके . आयकर विभाग अगर सूक्ष्म जाँच करे तो इन नेताओं की अपार  संपत्ति का पता लगाया जा सकता है . इनके सारे बड़े नेता दो राज्यों से आते हैं यह किसी से छुपा नहीं है
.
कहाँ हैं इनके समर्थक तथाकथित मानवधिकारवादी, कहाँ है उनका क्षद्म आदिवासी प्रेम . इसकी भी गहन जाँच होनी चाहिए कि इनका क्या संबंध है नक्सलवादियों से .

अगर सरकार किसी भी दबाव मे आकर इनसे कोई भी समझौता करती है तो एक और गलत परंपरा का निर्माण करेगी जैसी भूल उसने पहले भी कश्मीर और पंजाब मे की है . जिन आतंकवादियों को छोड़ दिया गया वे आज भी  मुख्य धारा मे शामिल होने के बजाय अलगाववाद का झंडा उठाये घूम रहे हैं .

अब जबकी इनके एक बड़े नेता जिन्होने अपना उपनाम गांधी रखा है लेकिन कार्य बिल्कुल विपरीत हैं सरकार की पकड़ मे हैं , उससे अंदर का सब सच उगलवाने का प्रयास करना चाहिए . किस भी तरह का समझौता एक गलत संदेश लेकर जाएगा कि सामूहिक अत्याचार करो सरकार को दबाव मे डालो और छूट जाओ .

क्या जवाब देगी सरकार उन लोगों के परिवारों को जिनने अपनी जान गवाईं है इनके हाथों ? जिसमें सरकारी से लेकर आम आदिवासी शामिल हैं .

6 टिप्‍पणियां:

डॉ टी एस दराल ने कहा…

निश्चित ही चिंतन करने लायक विषय है।
अफ़सोस हमेशा ही ऐसा होता आया है।
चाहे चम्बल के डाकू हों या नक्सलवादी।

राजीव कुमार ने कहा…

सरकार यदि नक्सलियों के छलावे में आती है तो बड़ी बेवकुफी होगी... आपने कहावत तो सुनी होगी.... ''मरता क्या न करता''... नक्सली इसलिए बातचीत को राजी हुए है... वो अच्छी तरह जानते हैं कि अब जवान उनकी मांद में घुसकर मात देने का माद्दा रखते हैं और गांवलोगों की बीच भी उनकी पैठ नहीं बची है। ऐसे में मरे या फिर सरेंडर कर दें।

राज भाटिय़ा ने कहा…

सरकार ने कभी ना सही फ़ेंसला किया है?

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

सरकार के पास जवाब सिर्फ़ खाना पुर्ति वाले होते हैं. क्या करेंगे लेकर? हां समस्या का स्थायी हल निकालने की दिशा मे कोई उपाय किया जा सके तो बेहतर होगा.

रामराम.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सरकार जान बूझ कर ऐसे मुद्दे जीवित रखती है ... चुनाव में इस्तेमाल करने के लिए .....

Akhilesh pal blog ने कहा…

achha likha hai aap ne